मॉनसून
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मॉनसून उन हवाओं को कहते हैं जो मौसमी तौर पर बहती हैं। हिंद महासागर और अरब सागर से भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान की ओर बहने वाली यह हवाएं इन क्षेत्रों में भारी होने वाली वर्षा में सहायक होती हैं। हाइड्रोलॉजी की भाषा में मॉनसून वर्षा उसे कहते हैं जो किसी मौसम में किसी क्षेत्र विशेष में होती है। दुनिया के अनेक क्षेत्रों जैसे उत्तरी व दक्षिणी अमेरिका, अफ्रीका के कुछ भाग, ऑस्ट्रेलिया और पूर्वी एशिया में भी ऐसी वर्षा होती है। भारत में जितने क्षेत्र में मॉनसून की वर्षा होती है, उसके सामने अमेरिका का मॉनसून छोटा पड़ता है क्योंकि भारतीय उपमहाद्वीप में आबादी अमेरिका से कहीं अधिक है।
विशेषज्ञों का कहना है कि मॉनसून की शुरुआत 5 करोड़ वर्ष पूर्व भारतभूमि के एशियाई महाद्वीप से टकराने के बाद तिब्बती प्लैटू के उठने से हुई थी। अनेक भूवेत्ताओं का मानना है कि मॉनसून 80 लाख वर्ष पहले अपने मौजूदा स्वरूप में आया था। ऐसा वह अरब सागर से मौजूद डाटा और चीन से हवा के साथ आने वाली धूल के आधार पर कहते हैं। हाल में चीन से मिले पौधों के जीवश्म और दक्षिणी चीन सागर से मिले पत्थरों के आधार पर वैज्ञानिकों का कहना है कि मॉनसून की शुरुआत डेढम् से दो करोड़ वर्ष पूर्व तिब्बती प्लैटू के उठने के शुरुआती समय में अस्तित्व में आया था। इस विचार को साबित करने के लिए अभी प्रयोग चल रहे हैं। मॉनसून के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त होने के बाद अब इसके अंतर्गत वार्षिक तौर पर होने वाले मौसमी बदलावों को भी शामिल किया जाने लगा है। यह भी माना जा रहा है कि अतीत में मॉनसून ‘पैनगाया’ या सुपरकॉन्टिनेंट्स (जब पृथ्वी का समूचा भूभाग एक था) के निर्माण में भी सहायक था।
यह तो आप जानते ही हो कि आजकल मॉनसून का मौसम चल रही है जिसमें खूब बरसात होती है, लेकिन क्या आप यह भी जानते हो कि बारिश होती कैसे है? बारिश वाष्पीकरण की वजह से होती है, लेकिन वाष्पीकरण तो हमारे घरों में भी होता रहता है। आपने देखा ही होगा कि कूलर का सारा पानी वाष्प बनकर खत्म हो जाता है, धूप-हवा में पड़े भीगे कपड़े भी सूख जाते हैं। इससे संपर्क में आने वाली आस-पास की हवा में नमी जरूर आ जाती है, लेकिन बारिश नहीं होती। फिर बारिश कैसे होती है? असल में, पानी के वाष्प बनकर उड़ जाने और फिर बारिश के रूप में बरसने के बीच एक लंबी प्रक्रिया होती है। पानी के वाष्पीकरण के बाद यह भी जरूरी होता है कि नमी वाली यह हवा अपने उस गर्म वातावरण को छोड़ कर ठंडे वातावरण की ओर बढ़े जिससे जल वाष्प में सघनता पैदा हो सके। गर्मियों के मौसम में जब तापमान ज्यादा होता है तब समुद्र, नदियों, झीलों वगैरह का पानी धूप में गर्म होकर धीरे-धीरे वाष्प बनकर हवा में मिलने लगता है। इस प्रकिया को ही हम वाष्पीकरण कहते हैं।
हल्की होने के कारण यह जल वाष्प हवा में ऊपर उठने लगती है। हम जानते हैं कि जैसे-जैसे ऊंचाई बढ़ती है, तापमान कम होने लगता है। ऊपर जाने पर तापमान में आई इस कमी से वाष्पकण धीरे-धीरे सघनित होने लगते हैं। एक-दूसरे के करीब आने लगते हैं जिससे पानी की बहुत ही नन्हीं-नन्हीं बूंदें बनने लगती हैं। ऐसा होने पर बादलों का निर्माण होने लगता है। हवा के साथ जब ये बादल अधिक तापमान वाले स्थान से कम तापमान वाले स्थानों की ओर जाने लगते हैं तो वातावरण में पाए जाने वाले धूल-कणों की वजह से बादलों की ये नन्हीं बूंदें एक-दूसरे के और पास आकर और ज्यादा सघनित होने लगती हैं। इस तरह वाष्पकणों की सघनता बढ़ने से बारिश की बूंदों का निर्माण होता है और अपने बढ़ते वजन के कारण ये बूंदें जमीन पर गिरती हैं। आकाश से गिरती पानी की ये बूंदें हमें बारिश के रूप में दिखाई देती हैं।
मानसून का गणित!
मानसून शब्द की उत्पत्ति अरब शब्द मौसिन से हुई है। जिसका अर्थ होता है मौसम। सलाना आगमन के कारण ही इस खास जलवायु का नाम मानसून पड़ा। आइए अब जानते हैं कैसे होता है मानसून का आगमन:-
पृथ्वी द्वारा सूर्य का चक्कर लगाने के क्रम में पृथ्वी का कुछ भाग कुछ समय के लिए सूर्य से दूर चला जाता है। जिसे सूर्य का उत्तरायन और दक्षिणायन होना कहा जाता है। पृथ्वी पर स्थित दो काल्पनिक रेखाएं कर्क और मकर रेखा है। सूर्य उत्तरायन के समय कर्क रेखा पर और दक्षिणायन के समय मकर रेखा पर होता है। पृथ्वी पर इसी परिवर्तन के कारण ग्रीष्मकाल तथा शीतकाल का आगमन होता है। यहां पर मुख्यरूप से तीन मौसम होते हैं-ग्रीष्मकाल, वर्षाकाल तथा शीतकाल। ग्रीष्मकाल की अवधि मार्च से जून तक, वर्षाकाल की अवधि जुलाई से अक्टूबर और शीत काल की अवधि नवम्बर से फरवरी होती है।
मौसम में इसी परिवर्तन के साथ हवा की दिशा भी बदलती है। जहां ज्यादा गर्मी होती है वहां से हवा गर्म होकर ऊपर उठने लगती है और पूरे क्षेत्र में निम्न वायुदाब का क्षेत्र बन जाता है। ऐसी स्थिति में हवा की रिक्तता को भरने के लिए ठंडे क्षेत्र से हवा गर्म प्रदेश की ओर बहने लगती है। शुष्क और वर्षा काल का बारी-बारी से आना मानसूनी जलवायु की मुख्य विशेषताएं हैं। ग्रीष्म काल में हवा समुद्र से स्थल की ओर चलती है जो कि वर्षा के अनुकूल होती है और शीत काल में हवा स्थल से समुद्र की ओर चलती है।
ग्रीष्म काल में 21 मार्च से सूर्य उत्तरायण होने लगता है तथा 21 जून को कर्क रेखा पर लंबवत चमकता है। इस कारण मध्य एशिया का भूभाग काफी गर्म हो जाता है। फलस्वरूप हवा गर्म होकर ऊपर उठ जाती है और निम्न दबाव का क्षेत्र बन जाता है। जबकि दक्षिणी गोलार्ध के महासागरीय भाग पर ठंड के कारण स्थित उच्च वायुदाब की ओर से हवा उत्तर में स्थित कम वायुदाब की ओर चलने लगती है।
इस क्रम में हवा विषवत रेखा को पार कर फेरेल के नियम के अनुसार अपने दाहिने ओर झुक जाती है। फेरेल के नियम के अनुसार पृथ्वी की गति के कारण हवा अपनी दाहिनी ओर झुक जाती है। यह हवा प्रायद्वीपीय भारत, बर्मा, तथा दक्षिण-पूर्वी एशिया के अन्य स्थलीय भागों पर दक्षिणी-पश्चिमी मानसूनी हवा के रूप में समुद्र से स्थल की ओर बहने लगती है। इसे दक्षिणी-पश्चिमी मानसून कहते हैं। ये हवा समुद्र से चलती है इसलिए इसमें जलवाष्प भरपूर होती हैं। इसी कारण एशिया महाद्वीप के इन क्षेत्रों में भारी वर्षा होती है। यह मानसूनी जलवायु भारत, दक्षिण-पूर्वी एशिया, उत्तरी आस्ट्रेलिया, पश्चिमी अफ्रीका के गिनी समुद्रतट तथा कोलंबिया के प्रशांत समुद्रतटीय क्षेत्र में पाई जाती है।
23 सितम्बर के बाद सूर्य की स्थिति दक्षिणायन होने लगती है, और वह 24 दिसम्बर को मकर रेखा पर लम्बवत चमकता है, जिस कारण उत्तरी गोलार्ध के मानसूनी प्रदेशों (मध्य एशिया) के अत्यधिक ठंडा हो जाने के कारण वहां उच्च वायुदाब विकसित हो जाता है। ये हवाएं उत्तर-पूर्वी मानसूनी हवाएं कहलाती है। अब एशिया के इस आंतरिक भाग से ठंडी हवा समुद्रतटों की ओर चलने लगती है। हिमालय पर्वत श्रेणी के कारण ये ठंडी हवा भारत में प्रवेश नहीं कर पाती। उत्तर-पूर्व दिशा में बहती हुई यह हवा विशाल हिस्से को पार कर दक्षिण एशिया के देशों में पहुंचती है। स्थल से आने के कारण यह हवा शुष्क होती है, किन्तु बंगाल की खाड़ी पार करते समय आर्द्रता ग्रहण कर लेती है, और इसलिए प्रायद्वीपीय भारत के पूर्वी समुद्रतटीय भागों में, खासकर तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में, वर्षा होती है। इसे मानसून का लौटना कहते हैं।
मानसून के कारण वर्षा प्राय: तीन प्रकार की होती है-चक्रवातीय, पर्वतीय तथा संवहनीय। आर्द्र मानसून हवाएं जब पर्वत से टकराती है तो ऊपर उठ जाती हैं, परिणामस्वरूप पर्याप्त बारिश होती है। चूंकि हम जानते हैं कि ज्यों-ज्यों उंचाई बढ़ती है तापमान कम होने लगता है। 165 मीटर ऊपर जाने पर एक डिग्री सेंटीग्रेट तापमान कम हो जाता है। हवाएं जब ऊपर उठती हैं तो इसमें मौजूद वाष्पकण ठंडे होकर पानी की बूंदों में बदल जाते है। जब पानी की बूंद भारी होने लगती है तो यह धरती पर गिरती है। इसे हम बारिश कहते हैं। चूंकि मानसूनी हवा में वाष्पकण भरपूर मात्रा में होते हैं इसलिए बारिश भी जमकर होती है।
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